श्री साईं चालीसा
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साईं चालीसा (अंग्रेजी)
!! पहले साईं के चरणों में, अपना शीश नमु में,
कैसे शिरडी साईं आए, सारा हाल सुनाऊ में,
कौन हे माता, पिता कौन हे, यह न किसी ने भी जाना,
कहा जनम साईं ने धरा, प्रश्न पहेली रहा बना !!
!! कोई कहे अयोध्या के ये, रामचन्द्र भगवान हैं,
कोई कहता साईंबाबा, पवन-पुत्र हनुमान है,
कोई कहता मंगल मूर्ति, श्री गजानन है साईं,
कोई कहता गोकुल-मोहन, देवकी नंदन है साईं। !!
!! शंकर समझ भगत कहि तो, बाबा को भजते रहते,
कोई कहे अवतार दत्त का, पूजा साईं की करते,
कुछ भी मानो उनको तुम, पर साईं हैं सच्चे भगवान,
बड़े दयालु, दानबंधु, कितनो को दिया है जीवन दान !!
!! कई साल पहले की बात, तुम्हें सुनूंगा मैं बात,
किसी भाग्यशाली की, शिरडी में आई थी बारात,
आया साथ उसी के था, बालक एक बहुत सुन्दर,
आया, आकार वेही बस गया, पावन शिरडी किया नगर !!
!! कै दिनो तक रहा भटकता, भिक्षा मांगी उसने दर-दर,
और दिखाई ऐसी लीला, जग में जो हो गई अमर,
जैसी-जैसी उमर बढ़ी, वैसी ही बढ़ती गई शान,
घर-घर होने लगा नगर में साईं बाबा का गुणगान !!
!! दिग-दिगंत में लगा गूंजने फिर तो साईं जी का नाम,
दीन-दुखी की रक्षा करना, यहीं रहा बाबा का काम,
बाबा के चरणों में जाकर, जो कहता मैं हूं निर्धन,
दया उसी पर होती उनकी, खुल जाते दुख के बंधन !!
!! कभी किसी ने मांगी भिक्षा, दो बाबा मुझ को संतान,
एवं अस्तु तब कह कर, उसको वरदान देते,
स्वयं दुखी बाबा हो जाते, दीन-दुखीजन का लाख हाल,
अन्तःकरण श्री साईं का, सागर जैसा रहा विशाल। !!
!! भगत एक मद्रासी आया, घर का बहुत बड़ा धनवान,
माल खजाना बेहद उसका, केवल नहीं रही संतान,
लगा मनाने साईं नाथ को, बाबा मुझ पर दया करो,
झांझा से झंकृत नैया को, तुम ही मेरा पार करो !!
!! कुलदीपक के अभव में, व्यर्थ है दौलत की मैया,
आज भिखारी बन कर बाबा, शरण तुम्हारी में आया,
दे दो मुझको बेटा दान, मैं फिर भी रहूँगा जीवन भर,
और किसी की आस ना मुझको सिर्फ भरोसा है तुम पर !!
!! अनुनाए-विनाए बहुत की उसने, चरणों में धरके शीश,
तब परसन होकर बाबा ने, दिया भगत को ये आशीष,
'अल्ला भला करेगा तेरा,' पुत्तर जनम हो तेरे घर,
कृपा होगी तुम पर उसकी, और तेरे उस बालक पर !!
!! अब तक नहीं किसी ने पाया, साईं की कृपा का पार,
बेटा रतन दे मद्रासी को, धन्य किया उसका संसार,
तन-मन से जो भजे उसी का, जग में होता है उद्धार,
सच को आंच नहीं है कोई, सदा झूठ की होती हार !!
!! मैं हू सदा सहारे उसके, सदा रहूंगा उसका दास,
साईं जैसा प्रभु मिला है, इतने ही काम है क्या आस,
मेरा भी दिन एक ऐसा था, मिलती नहीं मुझे रोटी,
तन पर कपड़ा दूर रहा था, शेष रही नन्हीं सी लंगोटी !!
!! सरिता सम्मुख होने पर भी मैं प्यासा की प्यासी थी,
दुर्दिन मेरा मेरे ऊपर, दावाग्नि बरसाता था,
धरती के अतिरिकत जगत में, मेरा कुछ अवलंब न था,
बना भिखारी दुनिया में, दर-दर ठोकर खाता था !!
!! ऐसे में एक मिटर मिला जो, परम भगत साईं का था,
जंजालो से मुकत मगर इस, जगती में वह मुझसा था,
बाबा के दर्शन की खातिर, मिल कर दोनो ने किया विचार,
साईं जैसे दयामूर्ति के, दर्शन को हो गए तैयार !!
!! पावन शिरडी नगरी में जाकर, देखी मतवाली मूर्ति,
धन्न जनम हो गया की हमने, जब देखी साईं की सोरती,
जब से किये है दर्शन हमने, दुख सारा काफूर हो गया,
संकट सारे मिटे और, विपदा का अंत हो गया !!
!! मान और सम्मान मिला, भिक्षा में हमको बाबा से,
प्रतिबिम्बित हो उठे जगत में, हम साईं की अबे से,
बाबा ने सम्मान दिया है, मान दिया इस जीवन में,
इसका ही संबल ले मैं, हंसता जाऊंगा जीवन में !!
!! साईं की लीला का मेरे, मन पर ऐसा असर हुआ,
लगता जगती के कन-कन में, जैसा हो वही भरा हुआ,
काशीराम बाबा का भगत, क्या शिरडी में रहता था,
मैं साईं का साईं मेरा, वह दुनिया से कहता था !!
!! सीकर स्वयं वस्त्र बेचना, ग्राम नगर बाजारो में,
झांकरित उसकी हृद तंत्री थी, साई की झांकरो में,
स्तब्ध निशा थी, द सोये, रजनी आंचल में चांद-सितारे,
हाथ को हाथ तिमिर के मारे नहीं सुझता रहा !!
!! वस्त्र बेचकर लौट रहा था, हे! हाट से काशी,
विचित्र बड़ा संयोग की उस दिन, आता था वह एकाकी,
घेर राह में खड़े हो गए, उसे कुटिल, अन्यायी,
मारो काटो लुटो इसकी ही ध्वनि पड़ी सुनाई !!
!! लूट पिट कर उसे वहा से, कुटिल गए चम्पत हो,
आगतो से मर्माहत हो, उसने दी संज्ञा खो,
बहुत देर तक पड़ा रहा वह, वही उसी हालात में,
जाने कब कुछ होश हो उठा, उसको किसी पलक में !!
!! अंजने ही उसके मुँह से, निकल पड़ा था सै,
जिसकी प्रतिध्वनि शिरडी में, बाबा को पड़ी सुनायी,
क्षुब्ध उठा हो मानस उनका, बाबा गये विकल हो,
लगता जैसे घटता सारी, घटी उन्हीं के सम्मुख हो !!
!! उन्मादी से इधर-उधर, तब बाबा लगे भटकने,
सम्मुख चीज जो भी आई, उनको लगे पटकाने,
और धड़कते अंगारो में, बाबा ने अपना कर डाला,
हुए शशांकित सभी वहा, लाख तांडव नृत्य निराला !!
!! समझ गये सब लोग की कोई, भगत पडा संकट में,
क्षुभित खड़े थे सभी वहा पर, पड़े हुए विस्मे में,
उसे बचने के ही खातिर, बाबा आज विकल है,
उसकी ही पीड़ा से पीड़ित, उनका अन्तःस्थल है !!
!! इतने में ही विधि ने अपनी, विचित्रता दिखलाई,
लाख कर जिसको जनता की, श्रद्धा सरिता लहरई,
लेकर संग्याहिं भगत को, गाड़ी एक वहा आई,
समुख आपने देख भगत को, साईं की आंखे भर आई !!
!! शान्त, धीर, गंभीर सिंधु सा, बाबा का अन्तःस्थल,
आज ना जाने क्यों रह-रह कर, हो जाता था चंचल,
आज दया की मूर्ति स्वयं था, बना हुआ उपचारी,
और भगत के लिए आज था, देव बना प्रतिहारी !!
!! आज भगति की विशम परीक्षा में, सफल हुआ था काशी,
उसके ही दर्शन के खातिर, उमादे नगर-निवासी,
जब भी और जहाँ भी कोई, भगत पड़े संकट में,
उसकी रक्षा करने बाबा, आते ही पलभर में !!
!! युग-युग का है साथी यह, नहीं कोई नई कहानी,
आपतग्रस्त भगत जब होता, आते खुद अंतर्यामी,
भेद-भाव से परे पुजारी, मानवता के थे साईं,
जितने प्यारे हिन्दू-मुस्लिम, उतने ही सिख ईसाई !!
!! भेद-भाव मंदिर-मस्जिद का, तोड़-फोड़ बाबा ने डाला,
राम-रहीम सभी उनके थे, कृष्ण-करीम-अल्लाताला,
घंटे की प्रतिध्वनि से गूंजा, मस्जिद का कोना-कोना,
मिले परस्पर हिन्दू-मुस्लिम, प्यार बढ़ा दिन-दूना !!
!! चमत्कार था कितना सुन्दर, परिचय इस काया ने दी,
और नीम कड़वाहट में भी, मिठास बाबा ने भर दी,
सबको स्नेह दिया साईं ने, सबको संतुल प्यार किया,
जो कुछ जिसने भी चाहा, बाबा ने उनको वही दिया !!
!! ऐसे स्नेह शील भजन का, नाम सदा जो जपा करे,
पर्वत जैसा दुख न क्यूं हो, पलभर में वह दूर तारे,
साईं जैसा दाता हमने, अरे नहीं देखा कोई,
जिसके केवल दर्शन से ही, सारे विपदा दूर हो गई !!
!! तन में साईं, मन में साईं, साईं-साईं भजा करो,
अपने तन की सुधि-बुधि खोकर, सुधि उसकी तुम किया करो,
जब तू अपनी सुधि ताज, बाबा की सुधि किया करेगा,
और रात-दिन बाबा, बाबा ही तू रात करेगा !!
!! बाबा को अरे! विवश हो, सुधि तेरी लेनी ही होगी,
तेरी हर इच्छा बाबा को, पूरी ही करनी होगी,
जंगल-जंगल भटक ना पागल, और ढूंढ़ने बाबाको,
एक जगह केवल शिरडी में, तू पायेगा बाबा को !!
!! धन्ने जगत में प्राण है वह, जिसने बाबा को पाया,
दुख में सुख में परहार आठ हो, साईं का ही गुण गया,
गिरे संकटो के पर्वत, चाहे बिजली ही टूट पड़े,
साईं का ले नाम सदा तुम, सम्मुख सब के रहो अड़े !!
!! इस बुढ्ढे की करामत सुन, तुम हो जाओगे हेयरां,
दंग रह गये सुनकर जिसको, जेन कितने चतुर सुजान,
एक बार शिरडी में साधु, ढोंगी था कोई आया,
भोली-भाली नगर-निवासी, जनता को था भरमाया !!
!! जड़ी-बूटी उन्हें दिखा कर, करने लगा वहा भाषन,
कहने लगा सुनो श्रोतागण, घर मेरा है वृंदावन,
औषधि मेरे पास एक है, और जब इसमें शक्ति है,
इसके सेवन करने से ही, हो जाती दुःख से मुक्ति !!
!! अगर मुक्त होना चाहो तुम, संकट से बीमारी से,
तो है मेरा नम्र निवेदन, हर नर से हर नारी से,
लो ख़रीद तुम इसको इसकी, सेवन विधिया है न्यारी,
यद्यापि तुच्च वस्तु है यह, गुण उसके है अति भारी !!
!! जो है संतति हीन यहीं यदि, मेरी औषधि को खाये,
पुत्तर-रत्न हो प्राप्त, अरे वाह मुँह मंगा फल पाये,
औषधि मेरी जो अन्न ख़रीदे, जीवन भर पछताएगा,
मुझे जैसा प्राणी शायद हाय, अरे यहां आ पायेगा !!
!! दुनिया दो दिनों का मेला है, मौज शौक तुम भी कर लो,
गर इससे मिलता है सब कुछ, तुम भी इसको लेलो,
हैरानी बढती जनता की, लाख इसकी करस्तानी,
प्रमुदित वह भी मन ही मन था, लाख लोगो की नादानी !!
!! खबर सुनाने बाबा को यह, गया दौड़कर सेवक एक,
सुनकर भृकुटि तानि और, विसमरन हो गया सभी-विवेक,
हुकम दिया सेवक को, सतवार पकड़ दुशात को लाओ,
या शिरडी की सीमा से, कपटी को दूर भगाओ !!
!! मेरे रहते भोली-भाली, शिरडी की जनता को,
कौन नीचे ऐसा जो साहस करता है चलने को,
पल भर में ही ऐसे ढोंगी, कपटी नीचे लुटेरे को,
महानाश के महागर्त में, पाहुंचा दू जीवन भर को !!
!! तनिक मिला आभास मदारी क्रूर, कुटिल अन्यायी को,
काल नाचता है अब सर पर, गुस्सा आया सै को,
पलभर में सब खेल बंद कर, भागा सिर पर रख कर जोड़ी,
सोचता था मन ही मन, भगवान नहीं है अब खैर !!
!! सच है साईं जैसा दानी, मिल न सकेगा जग में,
अंश इस का साईंबाबा, उन्हें ना कुछ भी मुश्किल जग में,
स्नेह, शील, सौजन्य आदि का, आभूषण धारण कर,
बढ़ता इस दुनिया में जो भी मानव-सेवा के पथ पर !!
!! वही जित लेता है जगती के, जन-जन का अन्तःस्थल,
उसकी एक उदासी ही जग को, कर देती है विह्वल,
जब-जब जग में भर पाप का, बढ-बढ़ ही जाता है,
उसे मिटाने के ही खातिर, अवतारी ही आता है !!
!! पाप और अन्ये सभी कुछ, इस जगत का हर के,
दूर भगा देता दुनिया के, दानव को क्षण भर में,
स्नेह सुधा की धार बरसाने, लगती है इस दुनिया में,
गले परस्पर मिलने लगते हैं, है जन-जन आपस में !!
!! ऐसे ही अवतारी साईं, मृत्युलोक में आकार,
समता का यह पाठ पढ़ाय, सबको अपना मार्गदर्शक,
नाम द्वारका मस्जिद का, रक्खा शिरडी में साईं ने,
दाप, ताप, संताप मिटाया, जो कुछ आया सै ने !!
!! सदा याद में मस्त राम की, बैठे रहते थे साईं,
पहर आठ ही राम नाम का, भजते रहते साईं,
सुखी-रुखी ताजी-बासी, चाहे या होवे पकवान,
सदा प्यार के भूखे साईं की खातिर सभी समान !!
!! स्नेह और श्रद्धा से अपनी, जान जो कुछ दे जाते थे,
बड़े चाव से उस भोजन को, बाबा पावन करते थे,
कभी-कभी मन बहलाने को, बाबा बाग में जाते थे,
प्रमुदित मन निरख प्रकृति, चता को वे होते थे !!
!! रंग-बिरंगे पुष्प बाग के, मंद-मंद हिल-डुल करके,
बिहाद विराने मन में भी, स्नेह सलिल भर जाते थे,
ऐसी सुमधुर बेला में भी, दुःख आपत विपदा के मारे,
अपने मन की व्यथा सुनाने, जान रहते बाबा को घेरे !!
!! सुनाकर जिनकी करुण कथा को, नयन कमल भर आते थे,
दे विभूति हर व्यथा, शांति उनके उर में भर देते थे,
जाने क्या अद्भुत, शक्तिशाली, उस विभूति में होती थी,
जो धारण करते मस्तक पर, दुख सारा हर लेती थी !!
!! धने मनुज वे साक्षात दर्शन, जो बाबा साईं के पाए,
धन्ने कमल कर उनके जिनसे, चरण-कमल वे परसाये,
काश निर्भय तुमको भी, साक्षात साईं मिल जाता,
बरसो से उजड़ा चमन अपना, फिर से आज खिल जाता !!
!! गर पकड़ाता में चरण श्री के, नहीं छोड़ाता उमरभर,
मुझे जरूर लेना चाहिए उनको, मुझ पर रूठते हुए !!
साईं चालीसा (हिन्दी)
!! पहले साईं के चरणों में, अपना शीश नमाऊँ मैं,
कैसे शिरडी साईं आए, सारा हाल सुनाऊँ मैं,
कौन हैं माता, कौन हैं पिता, ये न किसी ने भी जाना,
जहां जन्म साईं ने धारा, प्रश्न पहेली बना रहा !!
!! कोई कहे अयोध्या के ये, रामचन्द्र भगवान हैं,
कोई कहे सायंबाबा, पवन-पुत्र हनुमान हैं,
कोई कहे मंगल मूर्ति, श्री गजानन हैं साईं,
कोई कहते हैं गोकुल-मोहन, देवकी नन्दन हैं साईं !!
!! शंकर समझ भक्त कई तो, बाबा को भजते रहते,
कोई कह अवतार दत्त का, पूजा साईं की करें,
कुछ भी मनोवे तुम, पर साईं हैं सच्चे भगवान,
बड़े दयालु, दीनबन्धु, कितनों को दिया है जीवन दान !!
!! कई साल पहले की घटना, ऐसा सुना होगा मैं बात,
किसी किस्मत की, शिरडी में आई थी बारात,
आया साथ उसी के था, लड़का एक बहुत सुन्दर,
आया, आकर वहीं बस गया, पवन शिरडी किया नगर !!
!! कई दिनों तक भटकता रहा, भिक्षा योग्य वह दर-दर,
और दिखाई ऐसी लीला, जग में जो हुआ अमर,
जैसे-जैसे उमर बढ़ेगी, वैसे ही बढ़ती गई शान,
घर-घर होने लगा नगर में, साईं बाबा का गुणगान !!
!! दिग-दिगन्त में गूंजने लगा, फिर तो साईंजी का नाम,
दीन-दुखी की रक्षा करना, यही रहा बाबा का काम,
बाबा के चरणों में जाकर, जो कहता हूँ मैं निर्धन हूँ,
दया उसी पर होती है, खुल जाती दु:ख के बन्धन !!
!! कभी किसी ने काम किया भिक्षा, दो बाबा मुँहको सन्तान,
एवं अस्तु तब बनती साईं, देते थेहे नोटिस,
स्वयं दु:खी बाबा हो जाता है, दीन-दुखी जन का लाख हाल,
अन्त: करण श्री साईं का, सागर जैसा रहा विशाल !!
!! भक्त एक मद्रासी आया, घर का बहुत बड़ा धनवान,
माल ख़ज़ाना तू उसका, केवल नहीं रही सन्तान,
लगा मना साईं नाथ को, बाबा मुझ पर दया करो,
झाँझा से झंकृत नैया को, तुम ही मेरी पार करो !!
!! कुल्लुक के अभाव में, व्यर्थ है दौलत की माया,
आज भिखारी बन कर बाबा, शरण तुम्हारे मैं आया,
दे दो मुखको पुत्र दान, मैं ॠणीजीवन जीवन भर,
और किसी की आस न मुहको, सिर्फ़ भरोसा है तुम पर !!
!! अनुनय-विनय बहुत की खरीदे, चरणों में धर के शीशे,
तब प्रसन्न हुए बाबा ने, दिया भक्त को यह आशीष,
'अल्लाह भला करेगा तेरा', पुत्र जन्म हो तेरे घर,
कृपा होगी तुम पर उस, और तेरे उस लड़के पर !!
!! अब तक नहीं किसी ने पाया, साईं की कृपा का पार,
पुत्र रत्न दे मद्रासी को, धन्य किया उसका संसार,
तन-मन से जो भजे उसी का, जग में होता है रावण,
सांच को आंच नहीं है कोई, सदा झूठ की होती हार !!
!! मैं हूं सदा चलता हे, सदा ही दास,
साईं जैसा प्रभु मिला है, उतना ही कम है क्या आस,
मेरा भी दिन था इक ऐसा, मिलती नहीं थी मुझे रोटी,
तन पर कपड़ा दूर रहा था, शेष रही नन्हीं सी लंगोटी !!
!! सरिता सन्मुख होने पर भी मैं प्यासा का प्यासा था,
दुर्दिन मेरा मेरे ऊपर, दावग्नि बरसाना था,
धरती के अतिरिक्त जगत में, मेरा कुछ अवलंब न था,
बना भिखारी मैं दुनिया में, दर-दर ठोक खाता था !!
!! ऐसे में एक मित्र मिला जो, परम भक्त साईं का था,
जनजालों से मुक्त मगर इस, जगती में वह मु-सा था,
बाबा के दर्शन की खातिर, मिल दोनों ने किया विचार,
साईं जैसे दया-मूर्ति के, दर्शन को तैयार हो गए !!
!! पावन शिर्डी नगरी में जाकर, देखी मतवाली मूर्ति,
धन्य जन्म हो गया कि हमने, जब देखा साईं की सुरति,
जबसे किये हैं दर्शन हमने, दु:खरा काफूर हो गया,
संकट सारे मिटे और, विपदाओं का अन्त हो गया !!
!! मान और सम्मान मिला, भिक्षा में हमको बाबा से,
प्रतिबिम्बित हो उठती दुनिया में, हम साईं की आभा से,
बाबा ने सम्मान दिया है, मान दिया इस जीवन में,
इसे ही संबल ले मैं, हंसता सुन्दर जीवन में !!
!! साईं की लीला का मेरे, मन पर ऐसा प्रभाव हुआ,
लगता जगती के कण-कण में, जैसे हो वह भरा हुआ,
“काशीराम” बाबा का भक्त, इस शिर्डी में रहता था,
मैं साईं का साईं मेरा, वह दुनिया कहता था !!
!! सीकर स्वयं वस्त्र बाज़ार, ग्राम नगर बाज़ार में,
झंकृत उसकी हृदय तंत्री थी, साईं की झंकारों में,
स्तब्ध निशा थी, थे सोये, रजनी आंचल में चाँद-सितारे,
नहीं सूझता रहा हाथ को हाथ तिमिर के मारे !!
!! वस्त्र बेचकर लौट रहा था, हाय! हाट से “काशी”,
विचित्र बड़ा संयोग कि वह दिन, अब था वह एकाकी,
घिरे राह में खड़े हो गए, उसे कुटिल, अन्यायी,
मारो काटो लोटो इस की ही ध्वनि सुनाई दी !!
!! लूट पीट कर उसे वहां से, कुटिल गए चम्पत हो,
आघातों से ,मर्महत हो, उसने दी संज्ञा खो ,
बहुत देर तक पड़ा रहा वह, वहीं उसी हालत में,
जाने कब कुछ होश हो उठो, उसे किसी पलक में !!
!! स्वचालित ही उसके मुंह से, निकल पड़ा था साईं,
प्रतिध्वनि शिर्डी में, बाबा को सुना,
क्षुब्ध उठ हो मानस इनका, बाबा गए विकल हो,
जैसी घटना लगती है, घटी पहुंच के सम्मुख हो !!
!! अनमनी से इधर-उधर, तब बाबा लगे भटकने,
सम्मुख चीजें जो भी आईं,उन्हें लगे पटकने,
और धड़कते अंगारों में, बाबा ने अपना कर डाला,
हुए शशंकित सभी वहाँ, लख ताण्डव नृत्य निराला !!
!! समझ गए सब लोग कि कोई, भक्त पड़ा संकट में,
क्षुभित खड़े थे सभी वहां पर, पड़े हुए विस्मय में,
उसे इन सबके ही ख़याल से, बाबा आज विकल हैं,
उसकी ही पीड़ा से पीड़ित, उसकी अन्तःस्थल है !!
!! इतनी में ही विधि ने अपनी, विचित्रता दिखलाई,
लाख करे छोटी जनता की, श्रद्धा-सरिता लहरे,
करके संज्ञाहीन भक्त को, गाड़ी एक वहां आई,
सम्मुख अपने देख भक्त को, साईं की आंखें भर आईं !!
!! शान्त, धीर, गम्भीर सिन्धु-सा, बाबा का अन्तःस्थल,
आज ना जाने क्यों रह-रह कर, हो जाता था चंचल,
आज दया की मूर्ति स्वयं थी, बना हुआ उपचारी,
और भक्त के लिए आज था, देव बना प्रतिहारी !!
!! आज भक्ति की विपरीत परीक्षा में, सफल हुई “काशी”,
वह ही दर्शन के लिए उतरे थे नगरनिवासी,
जब भी और जहां भी कोई, भक्त पड़े संकट में,
उनकी रक्षा करने वाले बाबा, आते हैं पलभर में !!
!! युग-युग का है सत्य यह, नहीं कोई नई कहानी,
पीड़ित भक्त जब होता, आते स्वयं अन्तर्यामी,
भेद-भाव से परे पुजारी, मानवता के थे साईं,
जितने प्यारे हिन्दू-मुस्लिम, उतने ही थे सिख ईसाई !!
!! भेद-भाव मन्दिर-मस्जिद का, तोड़-फोड़ बाबा ने डाला,
राम-रहीम सभी उनके थे, कृष्ण-करीम-अल्लाहताला,
घंटे की प्रतिध्वनि से गूंजा, मस्जिद का कोना-कोना,
मिले आपस हिन्दू-मुस्लिम, प्यार बढ़ा दिन-दिन दुनिया !!
!! चमत्कार था कितना सुन्दर, परिचय इस काया ने दी,
और नीम कडुवाहट में भी,प्यारी बाबा ने भर दी,
सब्से प्यार दिया साईं ने, सब्से प्यार किया,
जो कुछ जिसने भी चाहा, बाबा ने उन्हें वही दिया !!
!! ऐसे स्नेह शील भजन का, नाम सदा जो जपा करे,
पर्वत जैसा दु:ख न क्यों हो, पलभर में वह दूर तेरे,
साईं जैसा दाता हमने, अरे नहीं देखा कोई,
जिसके केवल दर्शन से ही, सारे विपदा दूर हो गए !!
!! तन में साईं, मन में साईं, साईं-साईं भजा करो,
अपने तन की सुधि-बुद्धि खोकर, सुधि उसकी तुम किया करो,
जब तू अपनी सुधि तज, बाबा की सुधि करेगा,
और रात-दिन बाबा, बाबा ही तू राता करेगा !!
!! तो बाबा को अरे! विवश हो, सुधि तेरी लेनी ही होगी,
तेरी हर इच्छा बाबा को, पूरी ही करनी होगी,
जंगल-जंगल भटक न पागल, और ढूंढ़ने बाबा को,
एक जगह केवल शिरडी में, तू पायेगा बाबा को !!
!! धन्य जगत में प्राणी है वह, जिसने बाबा को पाया,
दु:ख में सुख में प्रहर आठ हो, साईं का ही गुण गाया,
गिरें संकटों के पर्वत, चाहे बिजली ही टूट पड़े,
साईं का ले नाम सदा तुम, सम्मुख सब के रहो अड़े !!
!! इस गाने की करामात सुन, तुम हो जाओगे हैरान,
दंग रह गए सुने होंगे कितने, जाने कितने चतुर सुजान,
एक बार शिर्डी में साधु, ढोंगी था कोई आया,
भोली-भाली नगर-निवासी, जनता को था भरमाया !!
!! जड़ी-बूटियाँ उन्हें नियंत्रित करने लगा, वहाँ भाषण,
कहा लगा सुनो श्रोतागण, घर मेरा है वृन्दावन,
औषधि मेरे पास एक है, और अजब इसमें शक्ति है,
इसके सेवन करने से ही, हो जाती दु:ख से मुक्ति !!
!! अगर मुक्त होना चाहो तुम, संकट से बीमारी से,
तो है मेरा नम्र निवेदन, हर नर से हर नारी से,
लो खरीदो तुम इसकी, सेवन विधियां हैं न्यारी,
यद्यपि स्वभाव वस्तु है यह, गुण उसके हैं अति भारी !!
!! जो है सन्तुष्टि हीन यहां यदि, मेरी औषधि को खायें,
पुत्र-रत्न हो प्राप्त, अरे वह मुंह मांगे फल पायें,
औषधि मेरी जो न फैले, जीवन भर पछतायेगा,
मेरे जैसे प्राणी शायद ही, अरे यहां आ पायेगा !!
!! दुनियां दो दिन का मेला है, मौज शौक तुम भी कर लो,
गर इससे मिलता है, सब कुछ, तुम भी इसे ले लो,
हरिणी गाँव, लख इसकी करस्तानी,
प्रमुदित वह भी मन ही मन था, लाख लोगों की नादानी !!
!! खबर सुनाने बाबा को यह, गया धाकड़ सेवक एक,
सुनकर भृकुटि तानी और, विस्मरण हो गया सभी विवेक,
हुक्म दिया सेवक को, सत्वर पकड़ दुष्ट को लाओ,
या शिरडी की सीमा से, कपटी को दूर भगाओ !!
!! मेरे रहते भोली-भाली, शिरडी की जनता को,
कौन निराश ऐसा करता है जो, साहस करता है छलने को,
पल भर में ही ऐसे ढोँगी, कपटी नीच लुटेरे को,
महानाश के महागर्त में, पहुंचा दूँ जीवन भर को !!
!! तनिक मिला आभास मदारी क्रूर कुटिल अन्यायी को,
काल नाचता है अब सिर पर, गुस्सा आया साईं को,
पल भर में सब खेल बंद कर, भागा सिर पर रखकर पैर,
सोच था मन ही मन, भगवान नहीं है अब ठीक है !!
!! सच है साईं जैसा दानी, मिल न छिपे जग में,
अंश ईश का सायंबाबा, उन्हें न कुछ भी मुश्किल जग में,
स्नेह, शील, उपहार आदि का, आभूषण धारण कर,
इस दुनिया में जो भी, मानव-सेवा के पथ पर !!
!! वही जीत लेती है जगती के, जन-जन का अन्तःस्थल,
उसकी एक उदासी ही जग को कर देती है विह्वल,
जब-जब जग में भार पाप का, बढ़ता-बढ़ता ही जाता है,
उसे मिटाने के ही कारण, अवतारी ही आता है !!
!! पाप और अन्याय सब कुछ, इस जगती का हर,
दूर भगा देता है दुनिया के, दानव को क्षण भर में,
स्नेह सुधा की धार बरसने, लगती है इस दुनिया में,
गले मिले होने लगते हैं, हैं जन-जन में !!
!! ऐसे ही अवतारी साईं, मृत्युलोक में आकर,
समता का यह पाठ पढ़ाया, सब अपना आप समझाकर,
नाम द्वारका मस्जिद का, रक्खा शिर्डी में साईं ने,
दाप, तप, सन्तापमिटाया, जो कुछ आया साईं ने !!
!! सदा याद में मस्त राम की, बैठे रहते थे साईं,
पहर आठ ही राम नाम का, भजते रहते थे साईं,
सूखी-रूखी, ताजी-बासी, चाहे या होवे पैड,
सदा प्यार के भूखे साईं की, खाते थे सभी समान !!
!! स्नेह और श्रद्धा से अपनी, जन जो कुछ दे जाते थे,
बड़े चाव से उस भोजन को, बाबा पावन करते थे,
कभी-कभी मन बहलाने को, बाबा बाग में जाते थे,
प्रमुदित मन निरख प्रकृति, छत्ता को वे होते थे !!
!! रंग-बिरंगे पुष्प बाग के, मन्द-मन्द हिल-डुल करके,
बीहड़ वीराने मन में भी, स्नेह सलिल भर जाते थे,
ऐसी सुमधुर बेला में भी, दु:ख विपदा के मारे,
अपने मन की व्यथा सुनाने, जन रहें बाबा को झुकने दो !!
!! सुनकर मानो कथा को, नयन कमल भर आते थे,
दे विभूति हर व्यथा,शान्ति, उनके उर में भर देते थे,
जाने क्या अद्भुत,शक्ति, उस विभूति में होती थी,
जो धारण करते मस्तक पर, दु:ख हर लेती थी !!
!! धन्य मनुज वे साक्षात् दर्शन, जो बाबा साईं के पाये,
धन्य कमल-कर उनके पास, चरण-कमल वे परसाये,
काश निर्भय तुमको भी, साक्षात साईं मिल जाता,
बरसों से उजड़ा चमन अपना, फिर से आज खिल जाता !!
!! गर पकड़ता मैं चरण श्री के, नहीं छोड़ता उम्रभर,
मना लेता हूँ मैं मुस्कुराते, गर रूठते साईं मुझ पर !!